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कभी मां बाप की कीमत कभी घर बार की कीमत।
अगर न हो पता लगती है तब परिवार की कीमत।
हमेशा जीत को भी जीत लेता है जो दुनिया में,
समझता खूब है बस इक ज़रा सी हार की कीमत।
महज़ रोटी की खातिर चैन से सोया न जो छः दिन।
वही बस जानता हफ्ते में इक इतवार की कीमत।
बिछड़कर, टूटकर उल्फ़त में रोया जो कई रातें।
चुकानी पड़ रही उसको महज़ इज़हार की कीमत।
जो कहते हैं मुझे दुनिया से मतलब ही नहीं हैं अब।
ज़रा समझा भी दो कोई उन्हें संसार की कीमत।
मुहब्बत का मैं शायर हूँ मुहब्बत है धरम मेरा।
मुझे मालूम है दुनियां में सबके प्यार की कीमत।
——-सिद्धार्थ मिश्रा