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रंगो का पर्व होली भारत का सर्वाधिक आनंददायी उत्सव है । ये उत्तर भारत का प्रमुख त्यौहार है …. लोग एक दूसरे को गुलाल लगा कर गले मिलते हैं । छोटे लोग बड़े लोगों का चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं ।किसानों की फसल कट चुकी होती है और किसान की मुट्ठी मे पैसा होता है । वह शीत ऋतु की चौखट से बाहर आ चुका होता है और मौसम अत्यंत सुहावना हो चुका होता है । जन साधारण में यह बहुत लोकप्रिय पर्व है ।
मथुरा वृंदावन मे होली का उत्सव लगभग 40 दिनों तक मनाया जाता है । माघ महीने की वसंत पंचमी से आरंभ होकर फाल्गुन में अपने चरम पर पहुंचता है ।
बरसानेकीलड्डूहोली— राधारानी और उनके पिता वृषभानु का गांव बरसाना है । यहां पर ब्रम्हगिरि पर्वत के शिखर पर राधा रानी का एक सुंदर सा मंदिर भी है ।
बरसाना में होली का उत्सव औपचारिक रूप से आरंभ तब होता है ,जब नंदगांव के निवासी बरसाने के निवासियों को होली का उत्सव मनाने के लिये आमंत्रित करते हैं । इसे ‘’फाग आमंत्रण” का उत्सव कहते हैं । इसी दिन बरसाने में लड्डू होली मनाई जाती है । दूसरे दिन बरसाने में और तीसरे दिन नंदगांव में लट्ठमार होली मनाई जाती है ।
लड्डूहोली
फाल्गुन मास की अष्टमी को मनायी जाती है वास्तव में मंदिर प्रांगण में ही मनायी जाती है …. -जहां लोग एक दूसरे पर पीले पीले स्वादिष्ट लड्डू फेंकते हैं । लड्डू होली के समय पूरा मंदिर प्रांगण पीत रंग हो उठता है , जो भगवान कृष्ण का प्रिय रंग भी है । भगवान् कृष्ण को पीताम्बर अर्थात पीत वस्त्र धारण करने वाला कहा जाता है ।
लट्ठमारहोली
बरसाने में फाल्गुन शुक्ल नवमी और नंदगांव में अगले दिन दशमी को मनायी जाती है–
गोकुल में बचपन बीतने के बाद कृष्ण जी के पिता नंद जी कृष्ण और गोप ग्वालों को लेकर सपरिवार नंदगांव में निवास करने लगे थे । नवयुवक कृष्ण नंदगांव , बरसाने से राधा गोरी और अन्य गोपिकाओं के संग होली खेलते हैं । यहीं पर विश्व प्रसिद्ध ‘लट्ठमार होली’ खेली जाती है । गांव की स्त्रियां रंग में सराबोर पुरुषों को बड़ी बड़ी लाठियों से पीटने का उपक्रम करती हैं , साथ में सुमधुर स्वर लहरी में गालियां भी सुनाती हैं ।
इस होली का संबंध कृष्ण और राधा से है …. कृष्ण के नंदगाव से पुरुष और राधा जी के बरसाना गांव से स्त्रियों से होली खेलते हैं । स्त्रियां पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं और पुरुष अपने हाथ में धातु से बनी हुई ढाल लेकर अपना बचाव करते हैं । दोनों दल एक दूसरे को चुन चुन कर गालियां भी देते हैं । गीतों की मधुर स्वर लहरी और रंग गुलाल से संपूर्ण वातावरण कृष्णमय हो जाता है ।
गोकुलकीछड़ीमारहोली —-

बचपन में कृष्ण यमुना नदी के बांये तट पर स्थित गोकुल गांव में निवास करते थे । उन्हें जन्म के तुरंत बाद कंस के अत्याचार से बचाने के लिये , उनके पिता वसुदेव जी ने तूफानी रात में उफनती यमुना नदी पार की थी ।और उन्हें गोकुल ले आये थे इसलिये कृष्ण जी ने अपना बचपन गोकुल में ही बिताया । इसलिये गोकुल के अधिकांश मंदिरों में नन्हे बालकृष्ण को झूले पर विराजमान देखेंगें ।
गोकुल में छड़ीमार होली मनाय़ी जाती है । इसके लिये एक छोटी सी नाजुक सी छड़ी का प्रयोग होता है । यह नंदगांव और बरसाने की होली का मृदु रूप कहा जा सकता है ।
मथुराकीकृष्णजन्मभूमिकाहोलीउत्सवरंगभरीएकादशी ——-

मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि संकुल में एक विशाल प्रांगण में होली मनायी जाती है । यहां पर रंगों को फव्वारों के द्वारा हवा में उड़ाया या फेंका जाता है । वहां प्रांगण में उपस्थित कोई भी व्यक्ति इससे बच नहीं सकता । सच तो यही है कि होली के उत्सव में भला कोई रंगों से क्यों बचना चाहेगा ….रंग से रंगे सभी भक्त एक रूप होकर अद्भुत मनोहारी दृश्य उपस्थित करते हैं । जात पात , ऊंचनीच , धन एवं व्यक्ति की विभिन्नता को भूल कर सब प्रसन्नता से होली का उत्सव मनाते हैं ।
वृंदावनमेंश्रीबांकेबिहारीजीकेमंदिरकीहोली——–
वृंदावन में सर्वधिक आनंददायी स्थल है … श्री बांके बिहारी जी का मंदिर .. यहां होली का उत्सव 4 दिनों तक जारी रहता है। यह फाल्गुन की एकादशी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक मनाया जाता है । लोगों पर गुलाल उड़ाते , रंग डालते पुजारियों और गोसाइयों की छवियां अधिकतर इसी मंदिर की होती है ।बड़ी बड़ी पीतल की पिचकारियों से टेसू का सुगंधित गर्म रंग जब भक्तों के ऊपर डाला जाता है तो भक्त भावाविभोर हो उठते हैं ।
गुलाल से भरे थाल पंक्तिबद्ध रूप से जब वहां के गोसाईं जी जब भक्तों पर फेंक कर उड़ाते हैं तो सारा परिसर रंग और गुलाल के साथ जयजयकार गूंज उठता है । बहुत मनोहारी दृश्य होता है ।
मथुराकेद्वारकाधीशमंदिरकीहोली ——-
विश्रामघाट के समीप स्थित द्वारकाधीश मंदिर के परिसर में भी होली का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है ।मंदिर परिसर में भी मंच पर समूहों में महिलाओं को पारंपरिक गीत गाते हुये देखा जा सकता है ।

चतुर्वेदीसमाजकाडोला ——-
एक विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है जो द्वारकाधीश मंदिर से आरंभ होती है ।
शोभायात्रा में लोग एक दूसरे पर रंग ,गुलाल, इत्र , तथा पुष्प छिड़कते हैं । वादकों द्वारा वाद्य बजाते हुये संगीत के सुरों में उत्सव गीत गाते हैं । पारंपरिक रूप से भांग का भी सेवन करते हैं ।
फगुआ——- फगुआ एक ऐसी परंपरा है , जहां देवर भाभी या जीजा साली से भेंट करते हैं और एक दूसरे को उपहार देते हैं ।
स्त्रियां विवाह के पश्चात् पहली होली का पर्व माइके में मनाती हैं , तब उनके पतिदेव उनके लिये उपहार लेकर उनसे मिलने अपने ससुराल जाते हैं और वहां से उपहार लेकर लौटते हैं ।
फूलोंवालीहोली —– यह अपेक्षाकृत नवीन प्रथा प्रतीत होती है , जब लोग एक दूसरे पर पुष्पों या पंखुरियों की वर्षा करते हैं । यह प्रथा किसी मंदिर से संबंधित नहीं है ।
संभव है कि भविष्य में फूलों की होली, होली मनाने की प्रणुख परंपरा बन जाये क्यों कि पुष्पों की वर्षा किसे नहीं अच्छी लगती ।
वसंत पंचमी से नित्य प्रति भगवान् को पुष्प के साथ गुलाल पत्ते के दोने में अर्पित करने की परंपरा है ऒर फिर प्रसाद स्वरूप स्वयं और अपने आसपास वाले को गुलाल लगाने का रिवाज है । मंदिर में लोग रंग लगाते हुये होली गीत गाते हैं …. आज बिरज में होरी रे रसिया …
मत मारे दृगन की चोट रसिया …. नैनन में श्याम समाय गयो रे …मोहे प्रेम का रोग लगाय गयो रे …. आदि
विश्राम घाट पर होली का गीत गाते हुये यमुना जी को भी सांकेतिक रूप से रंग लगाते हैं फिर एक दूसरे को रंग लगाते हैं ।
विधवाओं द्वारा होली खेली जाने का विशेष उल्लेख करना यहां पर आवश्यक है क्योंकि हमारे समाज में विधवाओं के लिये रंग छूना मना होता था । कुछ वर्षों पहले पागल बाबा में रहने वाली विधवाओं ने इस परंपरा को तोड़ कर रंगों से होली खेलना शुरू किया ।ब्रज हो या देश का कोई भाग हो , यह संदेश है कि विधवाओं का भी हक बनता है कि वह भी रंग पर्व पर रंग से सराबोर होकर का आनंद लें । जीवन रुकने का नाम नहीं वरन् चलते रहने का नाम है ।
बल्देव गांव के दाऊ जी के मंदिर में ‘हुड़ंगा’ के साथ होलिकोत्सव समाप्त होता है । यह उत्सव होली के बाद होता है । गोपों का समूह जो हुरियारिनों अर्थात् महिलाओं पर रंग की वर्षा करता है और हुरियारिनें उन गोपों के वस्त्रों को फाड़ कर कोड़ों की बरसात गोप समूहों पर करती है ।
हजारों श्रद्धालु आनंद की तरंग में मस्त होकर अबीर गुलाल उड़ाते हैं ।
‘ नारायण यह नयन सुख , मुख से कह्यो न जाए’ पंडा प्रसन्नता पूर्वक पदों का गायन भी करते हैं ।
हुरंगा की खासियत यह है कि यहां कोई दिखावा नहीं वरन् पारंपरिक वेशभूषा में सजी गोपियां , लंबा घूंघट और चुनरी के साथ सोलहों श्रंगार बहुत आकर्षित करती हैं और गोप भी पारंपरिक वेशभूषा में सजे हुये रहते हैं , जो दर्शकों को बहुत आकर्षित करती है । इस तरह से मथुरा वृंदावन की रंगीली होली का उत्सव विराम लेता है । आज भी लोगों की भारी भीड़ पहुंचकर होली का आनंद लेती है ।
पद्मा अग्रवाल
