अपनी धरती माँ से हम सब कितना कुछ ले लेते हैं अपने ही आराम की खातिर कितना दोहन करते हैं तरक्की के नाम पर हमने सारे जंगल काट दिए पेड़ लगाने थे जहाँ पर महल अटारी बाँट दिए जब भी देखो बरसे बादल धरा यहाँ रो देती है कहाँ संजोऊं इस पानी को जड़ें नहीं […]
अपनी धरती माँ से हम सब कितना कुछ ले लेते हैं अपने ही आराम की खातिर कितना दोहन करते हैं तरक्की के नाम पर हमने सारे जंगल काट दिए पेड़ लगाने थे जहाँ पर महल अटारी बाँट दिए जब भी देखो बरसे बादल धरा यहाँ रो देती है कहाँ संजोऊं इस पानी को जड़ें नहीं […]