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बगरो है वसंत

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पिय बगरो है वसंत

पर तुम अबहु नहिं आये

दक्षिणायन सूर्य की रश्मियों

से डर कर कहूँ छिप गया कुहासा

चिड़ियाँ चहचहा रही हैं

कोयल की मूठी मीठी कूक

गूँज रही है

चहुँ ओर फैली वसंती बयार

नीले अंबर के नीचे

धरा ने पहन ली है वसंती ओढनी

बगिया में खिल उठे रंग बिरंगे पुष्प गुच्छ

मानो धरती ने पहन लिया हो सतरंगी लंहगा

फिजाओं में छा रही मादकता

खिला हुआ इंद्रधनुषी पुष्पों का गुच्छा

घुल गई है अनूठी खुश्बू फिजा में

मंद मंद पवन डोल रही

नूतन किसलय ले रहे हिलोर

भौरे गुनगुना रहे हैं

उड़ रहीं हैं तितलियाँ

पिय तोरे विरह में

बैरी बन गया वसंत

बावरा मन तुम्हें ढूंढ रहा

तन हो रहा बेचैन

पिय तिय बिन सब सूना सूना लागै

विरही मन के संग

तन भी ले रहा अंगड़ाई

अब तो आ जाओ पिया

ये मौसम है मदमाता

मन मयूर उदास हो रहा

पिय बगरो है वसंत

पद्मा अग्रवाल

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