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एक स्त्री की कहानी उसी की जुबानी

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आज स़े तीस साल पहले स्त्री की मानसिक पीड़ा का चित्रण करती मेरी कहानी शायद आज भी पुरुष के अहंकारी वर्चस्व से आजाद नहीं हो पाई….

फरवरी महीने की हल्की हल्की ठंड, कुछ देर पहले बारिश भी हो चुकी थी ….. मौसम सुहावना और खुशनुमा था … लक्ष्मी जी रोजाना शाम को सोसायटी के गार्डेन में आतीं थीं … यहाँ  पर रंगबिरंगे फूलों के समान नन्हें बच्चों को खेलते , भागते दौड़ते , हँसते खिलखलाते देख कर उनका मन आनंद से सराबोर हो उठता था सच तो यह है  वह इन पलों का दिन भर इंतजार करतीं रहतीं थीं . कुछ बच्चों के साथ उनकी आया तो कुछ के साथ उनके दादा दादी …

यहीं पर उनकी मुलाकात मंगला जी से हुई थी , वह उनसे उम्र में काफी बड़ी थीं , वह उन्हें प्यार से आंटी जी कहने लगी थी . वह बंग्लुरु में अपने बेटे के साथ कुछ दिनों के लिये रहने के लिये आईं हुईं थीं , वह छोटे शहर से थीं इसलिये सबसे बात करने को आतुर रहतीं थीं . रोज रोज की मुलाकातों से हम लोगों के बीच व्यक्तिगत बातें भी एक दूसरे से होने लगीं थीं .एक दिन दो बच्चों की तोतली बातों को सुनकर वह खिलखिला कर हँस रहीं थीं और नन्हे से आयुष को अपनी गोद में उठा कर अपनी बाहों में भर कर प्यार करते देख वह बेसाख्ता  पूछ बैठीं थीं , ‘आपके बच्चे ‘उस समय उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि मानों किसी ने उनके जख्मों को कुरेद कर हरा कर दिया हो …. उनकी आँखे छलछला उठीं , वह तेजी से वहाँ से उठ कर अपने फ्लैट की की तरफ चली गईं …

काफी देर तक आँसू बहाने के बाद आज लक्ष्मी जी का मन शांत हुआ …. पति को खाना देने के बाद , आज उन्होंने खाना नहीं खाया लेकिन पति ने एक बार भी नहीं पूछा  तुम क्यों नहीं खा रही हो …. उनका मन बहुत खराब हो रहा था , उनकी आंखों की नींद उड़ चुकी थी … वह अपने जीवन  से बहुत  ऩिराश और हताश हो  रहीं थी….. वह पति से केवल सहानुभूति और उनकी  भावनाओं  को  समझने की चाह रखतीं थीं … उनके पति रामन्ना राजेश्वर राव वेड्डियार गहरी नींद में खर्राटे भर रहे थे …. यद्यपि कि वह उनके खर्राटों के शोर की वह आदी थी , परंतु आज यह  खर्राटे उनके  दर्द को बढा रहे थे . वह मन ही मन में सोचनें लगीं कि ये पुरुष कितना स्वार्थी और अहंकारी  होता है … सदैव अपने अहं को   संतुष्ट करने के लिये स्त्री पर किस तरह अत्याचार कर बैठता है और कभी भी उसपर  महसूस भी नहीं करता है ……प्रति पल वह अपनी  इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये स्त्री के जबर्दस्ती  सहयोग की भी  कामना करता है . यदि स्त्री मानसिक रूप से भी असहयोग  का भाव  दिखाती है तो भी उसके अहम् को चोट पहुँचती है .

                   आज नींद उससे कोसों दूर चली गई थी इसलिये वह अपने अतीत में विचरण करने लगी थी …. वह सोचने लगी कि जीवन की क्या विडंबना है कि  लड़की को जन्म से ही सामंजस्य करते रहने की शिक्षा जीवन घुट्टी की तरह ही पिला दी जाती है … बचपन से ही परिवार में यही सिखाया जाता है कि पुरुष का स्थान स्त्री से कहीं ऊँचा है … परिवार के सभी कार्यों  में पुरुष का निर्णय सर्वोपरि होता  रहा  है … जब भी कहीं स्त्री ने विरोध प्रगट किया वहीं से उसका पारिवारिक और सामाजिक जीवन उसके लिये चुनौती बन  कर रह जाता है ……

आज लक्ष्मी अपने बचपन के दिनों में उलझ गई थी … उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे कल की ही तो बात है …. वह अपने घर के बड़े से आंगन में दौड़ दौड़ कर आँख मिचौली और गेंद तड़ी , ऊँचनीच खेल रही है …कभी तितली पकड़ने के लिये उसके पीछे भागती फिर  रही है … उनके चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई थी …वह अपने माँ बाप की पहली संतान थी , इसलिये परिवार में सबकी लाडली , दादी का दुलारी तो दादा जी की प्यारी…पापा अपनी आँखों से दूर नहीं कर पाते तो माँ अपना सर्वस्व निछावर करने को तैयार रहतीं , लाड़ प्यार से पल रही थी, आँखों के इशारों से इच्छा पूरी की जाती , अभाव क्या होता है , यह कभी जाना ही नहीं था .

                 लेकिन अनुशासन के मामले में पापा और दादा जी दोनों ही बहुत कठोर थे …. अनुशासन तोड़ने पर कड़ी सजा का प्रावधान था … घर में काम करने वालों को भी काका , या अम्मा बोलना होता था , साथ में उन्हें इज्जत की दृष्टि से देखना होता था … दादा जी के हाथ का  वह थप्पड़ उन्हें आज भी याद है जब कृष्णम्मा अम्मा के नाम को बिगाड़कर उन्हें पुकारा था , तभी से यह सीख मिली थी कि सभी का समुचित आदर करना आवश्यक है .

बचपन की यादें धूमिल नहीं हुईं थीं , स्कूल जाना आज भी याद है …शहर के सबसे अच्छे स्कूल में उन्हें शिक्षा मिली … जीवन का उद्देश्य प्रत्येक स्थान में प्रथम  रहना सिखाया गया और वह सदा उसी में ही लगी रही थी … कक्षा में प्रथम स्थान उनके नाम के साथ जुड़  सा गया … सुमधुर स्वर ईश्वर प्रदत्त गुण था … शिक्षिकाओं की चहेती छात्रा बन गई थी … विद्यालय में होने वाले समारोहों की जान हुआ करती थी … उनके गीत के बिना विद्यालय का कोई समारोह पूरा नहीं होता था …. यद्यपि कि वह श्यामवर्णा थीं परंतु उनकी आँखें बड़ी और कंटीली थीं … उनमें अनोखा आकर्षण था , केश काले घने और घुंघराले थे , सब लोग उन्हें सुंदर कहते थे  … चूंकि कक्षा में वह सदैव प्रथम आती थीं इसलिये सम्मान पाने की आदत सी हो गई और साथ ही मन में विशिष्टता  का भाव पैदा होता गया कि वह  सामान्य बालिका न होकर कुछ विशिष्ट हैं …. विद्यालय की शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था … सदैव प्रथम आने का नशा लग चुका था इसलिये वह किताबी कीड़ा बन चुकी थी , उसका परिणाम यह हुआ  कि विश्व विद्यालय में भी उनका वही सिलसिला जारी रहा और वहाँ पर भी उन्हें गोल्ड मेडेल से नवाजा गया ….. उनके  माता पिता का सिर गर्व से ऊँचा उठ गया ….उनके चेहरे की चमक और तालियों के शोर  की गूँज आज भी उनके कानों में गूँज रही है …

       स्वयं के लिये न ही उनके मन में कोई इच्छा थी और ना ही कोई चाह और ना ही जीवन का कोई लक्ष्य था … बस घर वालों ने जो कहा वही करना था … केवल मन में एक ही भूख थी , सम्मान और विशिष्टता पाने की भूख और शायद इसी कारण आज निराशा और हताशा की गर्त में डूब उतरा रही हूँ … यद्यपि कि मेरा पढा लिखा परिवार था फिर भी आज से तीस वर्ष पहले मद्रास विश्विद्यालय में इंग्लिश साहित्य में मास्टर डिग्री में एक लड़की का टॉप करना उनके परिवार , खानदान और यहाँ तक कि पूरे  शहर में उन्हें  विशिष्ट और महत्वपूर्ण बना दिया … अखबारों में फोटो छपी , बड़े बड़े इंटरव्यूज समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए… चारों ओर उनके  नाम की धूम हो गई थी ….

        सब जगह एक ही प्रश्न पूछा जाता कि आपकी भविष्य के लिये क्या योजना है … क्या सपना  … क्या लक्ष्य है …परंतु इन सबके बाद भी उनमें कोई परिपक्वता नहीं थी … वह स्वावलंबन  नहीं था कि अपने भविष्य के विषय में कोई निर्णय स्वयं ले सकूँ  और फिर तो परिणाम वही हुआ जो होना था …..

संपन्न और रईस परिवारों से उनके लिये रिश्ते आने लगे … चूंकि वह संपन्न आधुनिक विचारों वाले जमींदार परिवार की स्वर्णपदक प्राप्त कन्या थी , उनका परिवार समाज में प्रतिष्ठित स्थान रखता था , इसलिये रिश्ते भी बहुतायत में आये … उनके पिता ने टी. राजेश्वर राव वेड़डियार को उनके लिये चुना , वह भी दिल्ली विश्वविध्यालय का स्वर्ण पदक प्राप्त युवक था … कुलीन परिवार , आकर्षक व्यक्तित्व , उच्च पदस्थ अधिकारी को उनके  योग्य समझा गया ….

आज भी उन्हें अच्छी तरह से याद है कि जब वह उन्हें देखने आने वाले थे तो किस तरह से पूरे घर को सजाया सँवारा गया था … घर के  एक एक कोनें को सजाया गया था … कहाँ किस रंग के  फूल सजाने हैं , किस रंग के पर्दे , कौन सी चादर कहाँ बिछाई जायेगी , सब कुछ करने के लिये पहले से प्लान बनाया गया था …. मेवे मिठाई और फलों का अंबार लगा दिया गया , पकवान और मिठाई की महक से पूरा घर भर गया था  . अंत में वह घड़ी  भी  आ गई  …. राजेश्वर अपने माता पिता और छोटे भाई के साथ आये , थोड़ी औपचारिकता के बाद वह उनके सामने गईं थीं , लेकिन अम्मा और दादी के निर्देशों को मानते हुय़े उन्होंने  अपनी नजरें  नीचे झुका रखीं  थीं …लाज के मारे उन्होंने राजेश्वर की ओर ठीक से देखा भी नहीं था और फिर उन्हें घर के अंदर भेज दिया गया  था … उन दिनों लड़कियों से  उनकी राय  मात्र दिखावे के लिये पूछी जाती थी … कुछ ही क्षणों में उन लोगों का निर्णय सुनने में आया कि वह पसंद कर ली गईं हैं …घर वालों के चेहरे खुशी से खिल उठे और सब एक दूसरे को बधाइय़ाँ देनें लगे थे …उनके अच्छे भाग्य के लिये सब लोग उन्हें सभी लोग बधाई दे रहे थे …सबको खुश देख कर वह भी उन क्षणों में प्रसन्न  थी  …. वह राजेश्वर की वाग्दत्ता बन गई  थी , उनकी प्यार भरे मीठे मीठे पत्र लिखने पढनें में दिन बीतने लगे थे … वह मीठे मीठे  सपनों में  खो गई थीं … सब कुछ बहुत सुहावना और मनभावन लग रहा था…. वह इंद्रधनुष के सतरंगी सपनों में रात दिन डूबी रहती . वह एक बार मिलने भी आये तो उनकी मीठी मीठी प्यार भरी बातें उन्हें बहुत अच्छी लग रहीं थीं …

       चूँकि उनकी अपनी कोई सोच  ही नहीं  थी … अपना कोई वजूद और लक्ष्य नहीं था इसलिये सब खुश थे तो वह भी खुश थीं … उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि उनकी खुशी किसमें है और वह क्या चाहती हैं ….

   शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं .. वह भी खुशी खुशी जेवर  साड़ियों को खरीद कर खुश हो रही थी … जल्दी ही शादी का दिन भी आ गया और भारी जेवरों और सिल्क की ढेरों साड़ियों से लदी फंदी हुईअपने ससुराल में उन्होंने अपने कदम रखे … उनका ससुराल नाम के लिये आधुनिक विचारधारा का था , वरन् वास्तविकता यह थी कि वह लोग अंधविश्वासी , पुरातनपंथी और कट्टर पंथी थे … उनलोगों की जीवन शैली परंपरावादी और रूढिवादी थी … बहू के लिये तरह तरह के नियम कानून थे …उसे साडी पहन कर सिर ढक कर घर के काम काज करना होता था .. सुबह सबेरे नहाने के बाद पूजा करना फिर किचेन में जाना होता था …जब घर के सब बडे लोग नाश्ता कर लें तभी बहू को नाश्ता करने का अवसर मिलता था . राजेश्वर के लिये उनके माता पिता ही सब कुछ थे , जो वह कहते राजेश्वर वही किया करते . … किचेन में क्या खाना बनना है या उन्हें क्या पहनना है , इस सब का निर्णय उनकी माँ का होता था ..कुछ दिन के लिये तो सब अच्छा लग रहा था फिर मन में रोष होने लगा … यदि वह कभी राजेश्वर से कहती कि कहीं बाहर चलिये या मूवी चलिये तो वह कहते पहले माँ से पूछ लो … वह उन्हें बहुत खराब लगता … धीरे धीरे वहाँ की दिनचर्या और जीवन शैली में उन्हें घुटन महसूस होने लगी… राजेश्वर उन्हें खुश देखना चाहते थे , इसलिये जब वह ज्यादा उदास होती तो वह उन्हें मां के पास भेज दिया करते , वहाँ जाकर वह खुली हवा में साँस ले पाती लेकिन आखिर वह वहाँ कितने दिन रहती …. राजेश्वर के बिना उनका मन वहाँ  नहीं लगता … वह चाहतीं थीं कि वह राजेश्वर की बाहों में बाहें डाल कर उन्मुक्त होकर आजाद  पंछी की तरह यहाँ वहाँ घूमूँ फिरूँ लेकिन कभी उन्हें ऑफिस का काम होता तो कभी सास का मन नहीँ …इस  कारण बस मिंयाँ की दौड़ मस्जिद तक  …. बस माँ के पास चेन्नई जाती , वह भी गिने चुने दिनों के ही लिये …

   चूँकि राजेश्वर प्रशासनिक अधिकारी थे , इसलिये बहुत व्यस्त रहते थे . उनका साथ उन्हें मिलता था लेकिन जिस उन्मुक्तता की उन्हें चाहत थी , वह उन्हें नहीं मिल पाती थी … वह दिन भर ऑफिस में रहते और वह घर में रहती .. उन दिनों लड़कियों का नौकरी करना शर्मनाक  समझा जाता था ….. दिन भर क्या करूँ यह समझ नहीं आता था … राजेश्वर की  पोस्टिंग चेन्नई से बहुत दूर उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ के पास एक छोटे शहर में हो गई … वह खुशी से झूम उठीं थीं लेकिन यहाँ आकर उनकी व्यस्तता ज्यादा बढ गई … उनका अकेलापन बढने लगा … वह अपना समय किताबों के साथ बिताने लगीं परंतु निरुद्देश्य किताबें पढना भी ऊब देनें लगा ….. जीवन एक निश्चित दिनचर्या में बँध गया था , तभी उनके  शरीर में राजेश्वर की निशानी नवांकुर की आहट सुनाई पड़ी थी … डॉक्टर ने बताया कि वह माँ बनने वाली हैं .. शुरू के दिनों में ज्यादा देख भाल की जरूरत है ….

वह क्षण उनके और राजेश्वर के लिये जीवन के अनूठे   अविस्मरणीय पल थे . कई वर्षों के इंतजार के बाद उन्हें मातृत्व के  वरदान से उनकी झोली भरने वाली  थी .उस दिन वह और राजेश्वर दोनं ही मंदिर गये और भगवान्   के  सामने सिर नवा कर आशीर्वाद माँगा था …राजेश्वर बहुत खुश थे उन्होंने अपनी समझ से  उस दिन उन्हें ढेरों हिदायतें दे डालीं थी… तुम कुछ काम मतकरना , बस आराम करना , लेटी रहना आदि आदि …… वह मन में  भविष्य की कल्पना करती रहती … शिशु के कोमल स्पर्श के सपने  देखती . अपने  अंदर की हलचल महसूस करके वह अकेले ही मुस्कुरा उठती… बड़े मीठे मीठे प्यारे से दिन  थे .

          राजेश्वर के छोटे भाई व्यंकटेश उम्र में उन लोगो काफी छोटे थे और प्रारंभ से उनके साथ ही रहते   रहे थे , इस लिये उनकी शिक्षा की  जिम्मेदारी उन लोगों की  ही थी इसलिये उन्होंने अपनी इच्छओं को दमित करते रहने का प्रयास किया करती रही थीं … यथासंभव घर में सामंजस्य बनाने के लिये अपनी इच्छाओं को दमित करते रहने का प्रयास  करती रहती थी … जिसका परिणाम यह हुआ कि राजेश्वर ने  हमेशा अपनी इच्छाओं को ही  प्राथमिकता दी….

वह अपनी कल्पनाओं में खोई रहती …डॉक्टर की सख्त हिदायत थी कि शुरू के कुछ महीनों तक पूर्ण विश्राम आवश्यक है अतः बिस्तर से भी उठने की मनाही कर दी थी … तीसरा महीना पूरा हुआ ही था कि राजेश्वर के पिता जी को गंभीर दिल का दौरा पड़ा … वह आइ. सी. यू. में एडमिट  थे और उनकी हालत गंभीर  बताई जा रही थी ……..उस समय बदहवासी की हालत थी … किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था , हवाई यात्रा की उन दिनों कोई व्यवस्था नहीं होती थी .. राजेश्वर मजबूरी में उन्हें  साथ में लेकर चेन्नई के लिये चल दिये … लंबी दूरी की यात्रा ने  उनकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया …उनके सपने चूर चूर  हो गये …वह कई दिनों तक हॉस्पिटल में एडमिट रहीं थीं … शारीरिक कष्ट  और मानसिक तनाव से वह पूरी तरह टूट गईं थीं .

डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा कि दुबारा मातृत्व के लिये लंबे इलाज और देख रेख के बाद ही इनका माँ बनना संभव हो सकता है … किसी विशेषज्ञ की सलाह और उपचार के बाद ही मातृत्व संभव है ,,, उन्होंने राजेश्वर को बहुत मनाने का प्रयास किया परंतु उनका अहंकारी स्वभाव इसके लिये राजी नहीं हुआ और फिर वह माँ नहीं बन पाईं …. वह उदास रहने लगीं .. उन्हें अपना जीवन वृथा लगने लगा …. उन्होंने अपने आस पास के बच्चों को पढाना शुरूकर दिया … वह अक्सर गाँवों में निकल जाती हैं वहाँ ग्रामीण महिलाओं को पढ़ने के लिये प्रेरित करती हूँ , उन्हें सफाई और अन्य उपयोगी जानकारी दिया करती हूँ .. . कुछ महिलाओं को सिलाई  सीखने के लिये एक टीचर की भी व्यवस्था की है , उनके सिले कपड़ों को बाजार मिले , इसके लिये भी प्रयत्न शील  थीं … जल्दी ही पापड़ , अचार आदि की कार्यशाला  करके उन महिलाओं को ट्रेनिंग दिलवा कर स्वावसंबी बनाने का प्रयास कर रही  थीं ….

राजेश्वर का उनका घर से निकल कर इन ग्रामीण महिलाओं के साथ घुलना मिलना पसंद नहीं आता … परंतु अब वह उनकी इन बातों की परवाह नहीं करतीं … कवितायें और कहानियाँ लिखती हूँ … अपने अकेलेपन की दुनिया बना ली है ..और उसी में व्यस्त रहती हूँ लेकिन उनके मन का अभाव आज भी उनके मानस को कुरेदता रहता है …

एक दिन राजेश्वर से बच्चा गोद लेने के विषय में बात की तो उनका मन थोड़ा पिघल उठा और उन्हें भी महसूस हुआ कि यदि वह एक बच्चा गोद ले लेंगें तो उन  लोगों का जीवन ही बदल जायेगा … फिर कुछ सोच कर बोले कि वह अपने माता पिता से पहले अनुमति लेंगें , उसके बाद ही निर्णय कर सकेगें …

राजेश्वर की इस बात से वह क्रोधित हो उठीं लेकिन आदत के अनुसार वह मौन रहीं … जब उन्होंने अपने माता पिता से पूछा तो वह एकदम नाराज होकर बोले , ‘तुमनें ऐसा सोचा भी कैसे ?   किसी दूसरे खानदान और परिवार का बच्चा अपना वारिस कैसे हो सकता है … यदि तुम ऐसा कदम उठाओगे तो उन लोगों की चिता को अग्नि देने के अधिकार से वंचित कर दिये जाओगे … व्यंकटेश है , उसके बच्चों को अपना बच्चा समझो …. राजेश्वर ने अनमने ढंग से पिता की बात मान ली और वह भाई के बच्चों पर अपना प्यार लुटाने लगे … लेकिन उन्हें उसी दिन से राजेश्वर और उनके परिवार से घृणा हो गई ….

यद्यपि कि वह दोनों एक ही छत के नीचे रहते हैं लेकिन दोनों की राहें अलग हो चुकी हैं … वह अपने ऑफिस और मां बाप और भाई में उलझे रहते हैं और वह अपनी कविता कहानियाँ और सामाजिक कार्यों में लगी रहती हूँ …गाँव में महिलाओं के बीच दीदी के नाम से लोकप्रिय हो गई हूँ ….महिलायें जब अपने पति के अत्याचारों की कहानियाँ सुनाया करती हैं  तो उन्हे लगता है कि जो उनके साथ हुआ … क्या वह अत्याचार नहीं है … उन्होंने अपने प्रयासों से गाँव के बच्चों के लिये एक स्कूल खुलवाया है , जहाँ शाम को महिलाय़ें भी पढने के लिये आती हैं …. स्कूल में बच्चों की संख्या लगभग 100  हो चुकी है और शाम को भी महिलाओं की संख्या में निरंतर बढोत्तरी हो रही है और अब तो पुरुष भी उत्साहित होकर अक्षर ज्ञान और जोड़ना घटाना सीखने आने लगे हैं …

महिलाओं के लिये समय समय पर बड़ी पापड़ अचार और फूड प्रिजर्वेशन की ट्रेनिंग करवाई जाती है ….उनके छोटे छोटे प्रयासों से महिलाओं में आत्मविश्वास बढा है …

उनका सदा यही प्रयास रहता है कि कोई भी महिला को उनकी तरह की पराधीनता वाली स्थिति से न गुजरना पड़े … हर स्त्री अपने पैरों पर खड़ी हो और वह अपने लिये निर्णय स्वयं ले सके … पहले उन्हें हर समय यही लगता रहता था कि उनका जीवन वृथा  हो गया क्यों कि वह गोल्ड मेडेल और तालियों की गूँज उनके कानों में गूँजती रहती थी लेकिन इन ग्रामीण महिलाओं के बीच काम करने के बाद जीवन की सार्थकता का अनुभव हुआ … अब उन्हें एहसास हुआ कि कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है … इन महिलाओं की समस्या का समाधान करने के बाद या उनकी सहायता करने के बाद जो अपार खुशी मिलती है , उसका वर्णन शब्दों के माध्यम से संभव नहीं है … यह अनुभूति  है …

मंगला जी के दो शब्दों के सामनें  ‘आपके बच्चे ‘  मातृत्व की अनुभूति के लिये वह भरभरा कर रो पड़ी थी … शायद ईश्वर ने उन्हें मातृत्व से इन महिलाओं के हित को ध्यान में रख कर ही वंचित रखा …..

यह है मेरी कहानी मेरी जुबानी …..

पद्मा अग्रवाल

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