Home Dil se हरियाली तीज स्मृतियां…
Dil se

हरियाली तीज स्मृतियां…

Share
Share

तीज पर्व के दो नाम प्रचलित हैं ….आसमान में उमड़ती घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली
(कज्जली) तीज और सावन की हरीतिमा के कारण हरियाली तीज के नाम से पुकारते हैं । इस तीज पर्व पर
तीन बातों के तजने ( छोड़ने ) का भी विधान भी पुस्तकों में मिलता है –
1…छल कपट
2…झूठ दुर्व्यवहार
3…पर निंदा
कहा जाता है कि इसी दिन गौरा जी विरहाग्नि में तप कर भगवान भोलेनाथ से मिली थीं । इस
त्यौहार पर सुहागिन स्त्रियां श्रंगार करके गौरी पूजन करती हैं । मेंहदी , झूला , एवं मेले का आयोजन विशेष
रूप से होता है । यह पर्व मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के बनारस, मिर्जापुर में मनाया जाता है । कजरी( विरह
गीत) का कंपटीशन भी होता था । यह वर्षा ऋतु का विशेष राग है । ब्रज के मल्हारों की भांति यह प्रमुख वर्षा
गीत पपीहा, बादलों, तथा पुरवा हवाओं के झोंकों में बहुत प्रिय लगता है।
तीज पर्व की स्मृतियों के साथ मायका जुड़ा हुआ है । बचपन की स्मृति सबके मन पर अमिट छाप रखती है ।
जीवन के किसी भी दौर में आप हों मायके का नाम सुनते ही हर स्त्री के चेहरे पर अनूठी मुस्कान आना
स्वाभाविक सा है । तीज पर्व पर उसी मायके की याद करते हुये , लगता है कि कल की ही बात है … जब मैं
8 – 9 साल की थी , और मैं नई फ्राक पहन कर यहां वहां कुलांचे भरती फिरती थी …. पहले संयुक्त परिवार
हुआ करते थे … ताई , चाची , बुआ आदि से भरा हुआ घर … दादी की तो सबसे दुलारी लाडली और प्यारी
पोती जो थी । घर में पहली पोती थी इसलिये मेरा रुतबा ही कुछ और था । दादी का लाड़ और स्नेह ऐसा कि
सभी भाई बहनों को लगता कि वह उसे ही सबसे ज्यादा चाहती हैं । चूंकि घर में बहुत से लोग थे और त्यौहार
उन दिनों बहुत उत्साह उमंग और धूमधाम से मनाये जाते थे । सावन का विशेष पर्व हरियाली तीज की
स्मृतियां आज भी ताजी हैं ……
कहां से शुरू करूं सब कुछ सजीव हो उठता है … कई दिन पहले से मिठाई , पकवान घर पर बनने शुरू हो
जाते थे क्योंकि त्योहार की मिठाई बुआ मौसी आदि के घरों में भेजी जानी होती थी और हां ,नानी के यहां से
भी तो मिठाई आती थी । बाजार की मिठाई के डब्बों का इतना चलन नहीं था । मां , ताई , चाची आदि सभी
प्रसन्नता पूर्वक कई दिन पहले से ही तैयारियों में लग जातीं थीं … साथ में सावन के गीत भी गुनगनाती रहती
थीं । सबके लिये बाजार से नई साड़ियां आतीं … साड़ी वाले भइया अपना गट्ठर लेकर आते और घर में ही
साड़ियां पसंद करके ले ली जातीं …. चूड़िहार आता और सबके हाथों में नई नई चूड़ियां पहनाता । लाल हरी
पीली चूड़ियां देख हम बच्चे भी बहुत खुश होते … यह भी लेना है , वह भी लेना है लेकिन नहीं…. सावन है
इसलिये हरी हरी चूड़ियां ही पहननी होतीं थी । फिर आती थी मेंहदी की बारी … नाइन आकर मेंहदी की हरी
हरी पत्तियों को पीसती थी, सारा घर मेंहदी की महक से गमक उठता था । हम सबके लिये मेंहदी लगाना
अनिवार्य होता था । सभी बच्चे तख्त पर लिटा दिये जाते और हाथ पैर में मेंहदी लगा दी जाती थी। और
मेंहदी लगते ही भूख लगना स्वाभाविक था , फिर दादी का मनुहार करके एक एक कौर मुंह में प्यार से
खिलाना ।

लाल लाल रचे हुये हाथ पैरों को बार बार निहारना और फिर सबको दिखा कर कहना कि मेरी मेंहदी सबसे
ज्यादा लाल है ।यह स्मृतियां भला कभी भूली जा सकती हैं । तीज की सुबह ताई ,मां और चाची ,बुआ सज
धज कर गौरी की पूजा करतीं । सभी एक साथ बैठ कर बायना मनसतीं । नई साड़ी , जेवर और मेंहदी लगे
चूड़ियों से भरे हाथ आज भी आंखों के सामने तैर उठते हैं ।
घर के पीछे नीम के पेड़ पर झूला डलता … दोपहर में सब मिलकर झूला झूलते । बुआ अपनी
सहेलियों के साथ ऊंची ऊंची पेंग लेकर झूला करती । हम बच्चों को छोटे झूले से ही संतोष करना पड़ता ।
मधुर स्वर लहरी में कजली, हिण्डोला गीत और झूलागीत गाया करतीं थीं । नन्हीं- नन्हीं बूंदों की फुहारों के
बीच झूले पर बैठ कर पेंग मार कर झूला झूलना सावन का असली आनंद था । आज भी कुछ पंक्तियां याद
आती
हैं….. झूला झूल ,झूला झूल
भइया माथे फूल , भाभी माथे सेंदुर
भइया भइया तुम भाग आओ, भाभी को भीजन देव
शादी के समय लड़की के लिये ससुराल से सिंधारा आने का रिवाज आज भी बहुत जगह हैं ।सावन
के महीने में मिर्जापुर ,प्रयागराज में लड़की का फूलों से श्रंगार करवाने का उस समय बहुत रिवाज होता था ।
वह दृश्य आज भी सजीव हो उठता है, जब बुआ के ससुराल से सिंधारा आया । बुआ को एक चौकी पर बैठाया
गया था , उनका फूलों से श्रंगार किया गया था । बेले की कलियों को पिरोकर बीच बीच में गुलाब आदि लगा
कर बहुत ही सुंदर माथापट्टी, वेणी, जूड़ा , गजरा , हार , हथफूल सब कुछ कलियों से ही बनाया जाता था ….
उसे ही लड़की या ब्याहली बहू के भी फूलों के श्रंगार का प्रचलन था। आज भी बुआजी का वह अप्सरा जैसा
सुंदर रूप आंखों के सामने सजीव हो उठता है ।
शाम को तीज का मेला देखने भी जाया करते थे । मेले में सभी महिलायें सज धज कर जाया करतीं
थीं । वहां पर झूला झूलने के लिये हम बच्चे बहुत लालायित रहते थे । लकड़ी के खिलौनें मे वहां से अपनी
गुड़िया के लिये पालकी खरीदना नहीं भूलते थे ।हम सभी बच्चे इन त्यौहारों या अवसरों का पूरा आनंद लिया
करते थे । उन दिनों गुब्बारा लेकर ही हम सब खुश हो जाते थे ।
हम सब उन पुरानी परम्पराओं और त्यौहारों से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते थे । आज
कंप्यूटर युग में हम सबके पास इन पुरानी परंपराओं और रिवाजों के प्रति न ही रुचि है न ही समय…. हम
बच्चों को ही दोष क्यों दें …हम महिलायें भी केवल त्यौहारों पर मात्र लकीर पीट कर ही अपना काम पूरा समझ
लेते हैं । अब त्यौहारों के लिये न ही उमंग है और न ही उल्लास , जो कुछ भी है वह अभी छोटे शहरों में थोड़ा
बहुत चल रहा है … महानगरों की व्यस्त जिंदगी में सब कुछ प्रायः लुप्त हो रहा है …सभा सोसायटी और
क्लबों में तीज मिलन करके लकीर पीटी जा रही है …
न रह गई अमराई , न ही नीम की डाल
न मस्ती न झूला , रह गई तो …बस भाग दौड…

Share
Related Articles
Dil se

कृष्ण जन्माष्टमी 

‘ऊधो मोहि बृज बिसरत नाहिं ‘…यदि आपको भी बृजभूमि  का  ऐसा ही...

Dil se

 पति पत्नी के रिश्ते  में मजबूती लाने के लिये प्रयास आवश्यक हैं 

शादी सात जन्मों  का बंधन  है … जोड़ियाँ ऊपर से बन कर...

Dil se

मुक्त

थोडी थोड़ी आजाद हो गई हूँ  मैं  थोड़ी थोड़ी जिम्मेदारियों से आजाद...

Dil se

निर्णय

शिवि मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी । वह अपने बॉस रुद्र...

Dil se

 महिलायें और अवसाद 

अवसाद आज एक विश्व्यापी समस्या है . ताजा अध्ययन कहता है कि...

Ajanta Hospital TEX