निम्न मध्यवर्गीय प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका सुषमा जी आज पहली बार ट्रेन के ए. सी. कूपे में बैठने के लिये छोटे बच्चे की तरह उत्साहित थीं। उन्होंने सदा कल्पना लोक में विचरण करते हुये ए.सी. कूपे की ठंडक का अनुभव किया था। बेटी की जिद और उसी की अनुकंपा से उन्हें आज यह सौभाग्य मिलने वाला था। वह अपने जीवन की इस उपलब्धि पर गौरवान्वित महसूस कर रही थीं।
उनके मन में अभिजात्य वर्ग के साथ कदम मिलाकर चलने में अपार संकोच का अनुभव हो रहा था। अपनी बर्थ पर पहुंचते ही उन्होंने अपने चारों ओर नजरें घुमाई, वहाँ सभी यात्री अपनी दुनिया में खोये हुये थे। उनके साथ उनकी बेटी मिनी और उसके बच्चे सनी मनी थे ,जिनकी उम्र 4 और 6 वर्ष थी।
बच्चे तो आखिर बच्चे थे बस शुरू हो गई धमाचौकड़ी, कभी भूख लगी है तो कभी पानी की प्यास। कभी इधर भाग तो कभी उधर, सन्नाटे को चीरते हुये बच्चों के कोलाहल के कारण वह लज्जा का अनुभव कर रहीं थीं।
उन्होंने बच्चों को डॉंटने के अंदाज में इशारे से चुप बैठने को कहा। आंखों ही आंखों के इशारे से उन्होंने अपनी बेटी से भी बच्चों को शांत रखने को कहा था ।
वैसे तो इन बच्चों की बाल सुलभ क्रीड़ायें सभी यात्रियों को मुस्कराने पर मजबूर कर रहीं थीं। फिर भी शांत वातावरण में बच्चों का शोरगुल उन्हें अटपटा लग रहा था।
सामने की बर्थ पर एक अभिजात्य वर्ग की दक्षिण भारतीय महिला बैठी हुई थीं, उनकी उम्र लगभग 45 वर्ष ,पक्का सांवला रंग, गोल्डेन फ्रेम के चश्मे के अंदर से झांकती बड़ी-बड़ी आंखें , नुकीली नाक के बांई ओर डायमंड की दमकती लौंग, लिपिस्टिक से रंगे हुये होंठ ,घने काले घुँघराले केश ,गले में लगभग 15 तोले की मोटी लंबी सोने की चेन ,और साथ में उतना ही लंबा भारी मंगलसूत्र ,कलाई में डायमंड के चमचमाते कंगन, लाल चौड़े बार्डर वाली प्योर सिल्क की साड़ी उनके धनी होने की कहानी कह रही थी। वह फर्राटेदार इंग्लिश में अपने पड़ोसी यात्री के साथ धीरे धीरे बात कर रहीं थीं।
उनके व्यक्तित्व से आतंकित होकर वह स्वयं में ही सिमट कर बैठ हुईं थीं। अनायास उन्होंने उनके साथ अपनी टूटी फूटी हिन्दी में वार्तालाप आरंभ किया। बातचीत का कारण सनी था । बातों ही बातों में वह सुषमा जी से घुलमिल गई। वह हिन्दी भाषा समझ लेतीं थीं लेकिन बोलने में कच्ची थीं ।
लक्ष्मी अयंगर ने अपना परिचय देते हुये बताया कि वह आई. ए. एस . अधिकारी की पत्नी हैं। वह अपने भाई के पास बेंगलुरु जा रही हैं। वह बार बार अपने पति व्यंकटेश की बातें कर रहीं थीं। उनकी पसंद नापसंद का जिक्र कर रहीं थीं । वह सनी और मनी के आकर्षण में बंध गई थीं । वह बच्चों के साथ उन्मुक्त होकर बच्चों की तरह उत्साहित होकर खेल रहीं थीं । कभी उनके साथ तुतला कर बात करतीं , कभी बॉल खेलतीं । उनके संग वह स्वयं बच्चा बनी हुई थीं ।
दोनों बच्चों के साथ खेलते हुये उनकी खुशी और उल्लास देखने योग्य था । सुषमा जी के मन में उत्कंठा हुई और वह लक्ष्मी जी से पूछ बैठीं थीं,’’ आपके बच्चे?’’
उनके इन दो शब्दों को सुनते ही उनकी खुशी काफूर हो गई थी ,उनका चेहरा विवर्ण होकर सफेद पड़ गया था । ओर वह एकदम गंभीर हो उठी थीं ।
वह घबरा गईं कि उन्होंने कोई बड़ी गलती कर दी है । वह स्वयं अपराध बोध से पीड़ित हो उठीं थीं, संभवतः उन्होंने उनकी कोई दुखती हुई रग छेड़ दी थी।
कुछ लम्हों के लिये वह एकदम चुप हो गईं थीं। उनकी आंखें भीग उठीं थीं ,थोड़े अंतराल के बाद सामान्य होने की कोशिश करते हुये बोलीं,’’ वह उच्च शिक्षा प्राप्त गोल्ड मेडलिस्ट धनी महिला हैं । उनके पास कोठी, बंगला ,कार,इज्जत, शोहरत, नौकर चाकर सब कुछ है । नहीं है तो एक अदद अपना बच्चा…. एक बार कुछ उम्मीद हुई थी लेकिन एक हादसे में सब कुछ समाप्त हो गया ।
ससुराल पक्ष के दबाव में पति बच्चा गोद लेने के लिये राजी नहीं हुये। उनका कहना है कि पराया खून पराया ही होता है । वह कभी अपना नहीं हो सकता ।
इसलिये मन के किसी कोने में मां न बन पाने का दर्द कचोटता कहता है । धन ,पद प्रतिष्ठा सब कुछ होते हुये भी मातृत्व के बिना अपने को अधूरा समझतीं हूँ।
अपने अधूरेपन से निराश होकर समाजसेविका बन गई हूँ।
गरीब बच्चों को पढा कर उनकी सेवा के माध्यम से अपनी कुंठा और अपने अधूरे पन को भूलने का प्रयास करती रहती हूँ।‘’
उनकी बातें सुषमा जी के दिल की गहराई में उतर गईं थी। वह स्तंभित होकर सोचने को विवश हो गईं थीं कि क्या स्त्री की पूर्णता मातृत्व में ही है ।
पद्मा अग्रवाल
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