मैं स्त्री हूँ
जग की जननी हूँ
सृष्टिकर्ता हूँ
परंतु विडम्बना देखो….
अपनी ही रचना
‘पुरुषों’ के हाथों
सदा से छली जाती रही हूँ
मेरी अस्मिता से खेलता है
रौंदता है…. मसलता है …..
अस्तित्व को नकार कर
उस पर बलपूर्वक राज करना चाहता है
मैं स्त्री हूँ
जन्मते ही दोयम्
बन जाती हूँ
‘बेटी पैदा हुई’…..
सुनते ही सबके चेहरे पर तनाव ….
माथे पर शिकन पड़ जाती है
परंतु बेटी अपनी बालसुलभ क्रीड़ाओं,
अठखेलियों, मोहक मुस्कान से
सबके चेहरे पर मुस्कुराहट सजा देती है
मैं स्त्री हूँ
बचपन से ही शुरू हो जाती है
संघर्षों की अनंत यात्रा ……
बनती हूँ शिकार
अनचाही छुअन का
स्कूल बस ड्राइवर….किसी नौकर
तथाकथित अंकल और कभी किसी दादा
के अनचाहे स्पर्श का
वह समझ नहीं पाती और
सहम कर चुप हो जाती हूं
कदम कदम पर छली जाती हूँ
समाज के तथाकथित
इज्जतदार कापुरुषों के द्वारा
अपनी अस्मिता….अस्तित्व … के लिये
पल पल संघर्ष करती
मैं स्त्री हूँ….
दीपशिखा सी तिल तिल जलती…
हवा के झोंके से लुप लुप कर
टिमटिमाती…..
कभी बेटी बन कर तो कभी बहन बन कर
कभी बहू कभी पत्नी तो कभी मां बन कर
जीवन के कठिन झंझावातों को झेलती
मुश्किलों को सहती हुई ….
भावनाओं में बह कर
क्षणांश में ही मोम सी पिघल उठती हूँ
मैं स्त्री हूँ
पद्मा अग्रवाल