अपनी धरती माँ से हम सब कितना कुछ ले लेते हैं
अपने ही आराम की खातिर कितना दोहन करते हैं
तरक्की के नाम पर हमने सारे जंगल काट दिए
पेड़ लगाने थे जहाँ पर महल अटारी बाँट दिए
जब भी देखो बरसे बादल धरा यहाँ रो देती है
कहाँ संजोऊं इस पानी को जड़ें नहीं है मिट्टी है
अपनी ही जननी पर देखो मत इतना अत्याचार करो
जीओ और जीने दो इसको मत इसका संहार करो
माँ सदा देती है हमको बस थोड़ा हक तुम अदा करो
पेड़ लगाओ ज्यादा से ज्यादा बस ये अहसान करो
जितना हम धरा को देंगें ज्यादा ही हम पायेंगे
वरना निर्वस्त्र अटारी में सब जिंदा दफ़न हो जायेंगे
जैसा बोये वैसा काटे कहावत ये पुरानी है
बिन पेड़ों के इस धरती की फिर तो ख़त्म कहानी है ।
धरा पर हमने जन्म लिया, माँ का इसको रूप दिया
लेकिन अबोली माँ को हमने क्यूँ जहरीला बना दिया
पेड़ काटे जंगल काटे सूने किए सब मैदान
तप उठी है सारी धरती निष्ठुर हुआ है आसमान
नहीं लगेंगे पेड़ नये तो पानी कहाँ से आयेगा
फैलेगी हवा जहरीली जीवन कहाँ बच पायेगा
बदल गया है मौसम सारा मची त्राही चारों ओर
पेड़ लगाओ धरती पर तुम अगर देखनी सुंदर भोर
चोली दामन का साथ है पर्यावरण और मानव का
माँ का सीना चीरेंगें तो रूप बने फिर दानव सा
वक्त अभी बचा है बाकी कुदरत से तुम प्यार करो
नदियाँ नाला बनेंगी इक दिन प्रकृति पर क्यूँ वार करो
@urmil59चित्कला