सेतुबंध

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सामने तैयारी चल रही थी और मैं मन में उमड़ती गहरी असहनीय वेदना को किसी तरह दबाए ,अश्रुओं को आँखों की कोरों में थामे उस तरफ देखे जा रही थी । माँ मुझे संभाली हुई थीं ।उनका स्नेहसिक्त कंपकंपाता सा स्पर्श मुझे ढाढस बंधा रहा था ,तभी सहसा मेरा ध्यान गया, शिशु की होने वाली छोटी -छोटी हरकत अचानक रुक गई थी ।मैं घबरा गई…..’ कहीं….मेरा अजन्मा शिशु ….??? इस ख्याल मात्र से मैं पसीने से तर-बतर हो गई…… तो क्या…. !!!! मेरा फैसला गलत था..?’ ‘ क्या मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था…?’ घबराहट में मेरी धड़कन बढ़ गई और आँसू थे कि बस सारे बांधों को तोड़, बहने को छटपटा रहे थे परन्तु किसी तरह मैं अपनी भावनाओं पर काबू रखी हुई थी। कैसे रो सकती थी . .मैं……. कैसे… क्योंकि…. क्योंकि…..प्रतीक ही तो …..’तभी सुबह का दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम गया। माँ, जो मेरी देखभाल के लिए  पिछले महीने ही मेरे पास आई थीं,रसोई में खाना बना रही थीं तभी अचानक फोन की घंटी बजी और प्रतीक के नहीं रहने की खबर आई ।मैं स्तब्ध सी फोन थामे बहुत देर तक खड़ी रही । “किसका फोन है”माँ की पुकार से मेरी चेतना जागी……. मैं …. मैं चीखना चाहती थी परन्तु नहीं चीखी .. मेरी इस चीख से मेरा होने वाला शिशु कहीं घबरा जाता तो……परन्तु मैं शोक संतप्त , वेदना से भरी,मन से टूटी ,जार -जार रोना चाहती थी किन्तु नहीं रोई , कैसे रोती… कैसे चीखती….. प्रतीक ही तो कहते थे कि अगर माँ रोती है, चीखती है तो गर्भ में पल रहे शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है तो …तो मैं अपने होने वाले शिशु का अनिष्ट तो नहीं चाह सकती थी न…..। आँखों में आँसुओं को थामे, पेट पर स्नेह से हाथ फेरते हुए मैं धीरे से सोफे पर बैठ गई थी । माँ अचानक तेजी से रसोई से निकलकर बाहर आईं , मेरी हालत देखकर चिंतातुर होकर बोलीं-‘ बेटा क्या हुआ….. बेटा बोलो.sss….” मैंने ‘ ना ‘में सर हिला दिया। माँ सब समझ गईं और मुझे पकड़कर जोर- जोर से रोने लगीं किन्तु मैं फिर भी नहीं रोई। माँ मानती थीं ,दुख का बहना आवश्यक है , नहीं तो कुछ अलग, अप्रत्याशित सा हो सकता था , इसलिए माँ ने मुझे अपने कंधे से लगा लिया ,मेरी आँखें  बरसीं अवश्य किन्तु… आवाज नहीं ,बिल्कुल भी  नहीं, मैं अपने शिशु को कष्ट नहीं पहुंचाना नहीं चाहती थी , कदापि  नहीं ……….यही…यही  तो कहते थे ना प्रतीक ….तुम….. फिर क्यों मुझे अकेला छोड़ गये …तुम…… प्रतीक क्यों……..!अब बताओ …, मैं कैसे सहूँ ……..दर्द को आंखों में , सीने में कब तक थामूँ…प्रतीक……. कब तक…. !!!कितनी विषम परिस्थिति है … एक मेरा अपना, जिसके साथ मैंने जीने -मरने की कसमें खाई थी, वह मुझे मझधार में  छोड़कर चला गया और दूसरा मेरा अपना जो कुछ ही दिनों में इस दुनिया में आने वाला है.,मेरे गर्भ में है…जीवन के दो शाश्वत सत्य…. मेरे सामने एक साथ उपस्थित थे ……….

                 माँ ने छोटे भाई विकास को फ़ोन कर सारी वस्तुस्थिति बताकर शीघ्र आने के लिए कहा और स्वयं भी जाने के लिए तैयारी करने लगीं । मैंने धीरे-धीरे वास्तविकता को स्वीकार करते हुए निर्णय लिया कि मैं भी जाऊँगी। मैंने जल्दी से विकास को फ़ोन करके कहा -“तुम यहां नहीं आना ,सीधे वहीं पहुँचो , मैं माँ के साथ आ रही हूँ।

               “तुम नहीं जाओगी।” माँ की आवाज पीछे से सुनाई दी।

             ” मैं जाऊँगी माँ ! मैं उन्हें अंतिम विदाई  देने जाऊंगी अपने अजन्मे शिशु के साथ। उससे कहूँगी – देखो बेटा! तुम्हारे पापा हमें छोड़कर जा रहे हैं ।”

           “नहीं बेटा ! तुम्हारे स्वास्थ्य को देखते हुए तुम्हारा वहाँ जाना बिल्कुल भी ठीक नहीं है।”मेरी बातें सुन माँ ने चिंतित स्वर में कहा।

        “आप समझने की कोशिश करो माँ! मुझे जाना ही है, अपने लिए , अपने शिशु के लिए……. ,जब स्याह अंधेरे और रोशनी को,जब छिपती काली रात और उजियारे सुबह को एक साथ देखूंगी….जब..जब विगत और आगत को महसूस करुंगी, तभी जी पाऊंगी माँ… तभी जी पाऊंगी  माँ !!!”

               ” माँ मुझे मत रोको , मुझे मत रोको।’मुझे इस तरह बुदबुदाते देख माँ ने मुझे धीरे से हिलाया तो मैं वर्तमान में लौटी । प्रतीक को मुखाग्नि दी जा रही थी ।मैं हाथ जोड़कर खड़ी हो गई तभी अचानक पेट में हल्की सी हलचल हुई ।दुख की गहन अनुभूति में भी मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई ।अभी तक खामोश सोया हमारा शिशु अब अपने पिता को अंतिम विदाई दे रहा है ,शायद….शायद…. ,हाथ जोड़ कर कह रहा हो-“पापा,आप कुछ दिन और रुक जाते तो ..तो मैं अपनी मिचमिचाती हुई आँखों से आपको देख लेता और …जब आप मुझे गोदी में लेते तो आपके स्नेह से मेरा रोम -रोम पुलकित हो उठता ….और ….और जब आप मुझे स्नेह से दुलारते तो मैं आपकी ऊँगली अपनी हथेलियों में दबा लेता फिर… फिर तो आप कहीं नहीं जा पाते न…..!!!ये स्नेह बंधन ही तो मेरा जीवन भर का सबसे प्यारा उपहार होता।”उसकी जोर जोर से पड़ रही लातों से मैं उसके उतावलेपन को महसूस कर रही थी। मैंने अपनी हथेली पेट पर रखी…. गर्भस्थ शिशु नजदीक… बिल्कुल नजदीक आ गया मेरी हथेली के… और  और…हौले हौले से मेरी हथेली को सहलाने लगा, मैंने … मैंने भी स्नेह से उसे सहलाया और ….और हमदोनों एक दूसरे की हथेली को थामे विदाई दे रहे थे उसको ,जो हमारा अपना ,हमदोनों का सेतुबंध था ,वह….वह……हमें छोड़कर जा रहा था। प्रतीक की देह अनंत में विलीन हो रही थी और मेरी पुकार ,मेरे दर्द को अपने में समेटे धीरे-धीरे चुपचाप बहते मेरे अश्रु प्रतीक को विदा दे रहे थे ।

               कुछ देर बाद मुझे गर्भ में कोमल हथेली के हिलने का अहसास हुआ,शायद….. शायद …. प्रतीक का अंश मुझसे कह रहा था ……”माँ! धीरज रखो, मैं आ रहा हूँ न ……..।”

                       शीला मिश्रा

Author’s bio

शीला मिश्रा मध्यप्रदेश की एक जानी मानी साहित्यकार हैं।पिछले पन्द्रह वर्षों से कहानी के साथ -साथ उनके आलेख, समीक्षा,व्यंग्य एवं कविताएँ विभिन्न पत्रिकाओं व अखबारों में तथा आकाशवाणी से  निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। वर्ष 2016में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह ‘एक नया आसमान’ ने साहित्य जगत में एक विशिष्ट पहचान बनाई है।इस कहानी -संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा प्रतिष्ठित ” दुष्यंत कुमार पुरस्कार ” से सम्मानित किया गया है।

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