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अस्तित्व…

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क्या है वजूद.?

कौन हूं मैं.?

किसके लिए हूं मैं.?

क्यों जी रही हूं.?

किसके लिए जी रही हूं.?

कौन करता है फिक्र.?

किसको है चिंता.?

औरत हूं मैं

वजूद की तलाश में

खुद से लड़ रही हूं…….

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वजूद की तलाश में दर दर भटकती नारी

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मां हूं तो किसने बनाया

बेटों को हैं क्या परवाह

वजूद तो हैं मां का उनसे ही

कहता है एक बेटा

मुझसे ही तो हैं मां का अस्तित्व……

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वेदना एक मां की क्यों है क्षुब्द

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पति कहता लाया तुझको डोली में बिठाकर

मुझसे ही तो है तेरी पहचान

मैने दिया तुझको

नए नए नाम

जुड़ कर मुझसे बनी तुम

पत्नी , बहु , भाभी , मां

वरना पड़ी रहती है पीहर में

बनकर एक अधूरी स्त्री……

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अर्धांगिनी बनकर भी बनी रही हीन

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देख ले मेरा रूतबा

मैं घर की शान

मैं ही सबका अभिमान

बाजुओं में हैं ताकत मेरी

मैं बच्चों का बाहुबली…….

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पुरुष सत्ता का कैसे ये अभिमान

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तुम तो एक वस्तु हो

पड़ी रहो घर के कोने में

होगी जब तुम्हारी जरूरत

पूछ लेंगे तुमसे भी एक बारी

चूल्हा चौका ही है तुम्हारी किस्मत……..

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भगवान की ये कैसी लीला औरत को क्यों बनाया निर्बल

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मत उलझों पुरुषों के दावेदारी में

भगवान ने दी है बुद्धि थोड़ी कम

मत ढूंढो अपने वजूद को

जो हैं मिला उस में खुश रहो…….

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अबला सबला नारी सब झेल रही है पुरुषों की मनमानी

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औरत का ये कैसा नसीब

छोड़ कर सब कुछ अपना

जी रही दूसरों के खातिर

कर दिया समर्पित जीवन

फिर भी मिला नही पुरुषो से रत्ती भर भी ज्यादा…….

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अस्तित्व की लड़ाई में जूझ रही है हर नारी

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औरत हूं मैं

क्या है वजूद मेरा……!!

स्वरचित मौलिक ©

संगीता गुप्ता

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